वित्तीय सक्रियता की लागत और लाभ

 संघ और राज्य

आजकल, भारत में राज्यों के वित्तीय प्रबंधन पर अभूतपूर्व ध्यान दिया जा रहा है। चिंताएं मुफ्त वितरण की बढ़ती संस्कृति, एक बहुत ही उच्च ऋणग्रस्तता स्तर, कर्ज का अनुत्पादक उद्देश्यों में उपयोग, सरकारी योजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए ऑफ-मार्केट उधारी का उपयोग, और संस्थागत नियंत्रण और संतुलन जैसे FRBM, CAG और बाजार की विफलता से संबंधित हैं। सुधार के लिए सुझाव दिए गए हैं “क्योंकि राज्य स्तर पर राजकोषीय अपव्यय की लागत अधिक मानी जाती है”। सुझावों में वित्तीय आपातकाल के कठोर प्रावधान का उपयोग करते हुए उधार लेने वाले राज्यों पर शर्तें लगाया जाना और FRBM ढांचे में सुधार करना शामिल हैं। फिर भी, केंद्र सरकार के स्तर पर वित्तीय फिजूलखर्ची की कीमत अधिक हो सकती है। 

बढ़ती वित्तीय सक्रियता  

बढ़ती वित्तीय सक्रियता को देखते हुए, मुफ्त वितरण और सब्सिडी दोनों पर, एक अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता है। कहा जाता है कि अंशदान अमीरों के पास जाने पर प्रोत्साहन और गरीबों के पास जाने पर सब्सिडी कहलाती है। साथ ही, मुफ्त वितरण के लिए प्रसिद्ध कुछ राज्यों ने विकास और कल्याण दोनों में सुधार प्रदर्शित किया है। इनमें से कुछ ‘मुफ्त वितरण’ जैसे तमिलनाडु की मिड-डे मील जैसी योजनायें पोषण के लिए एक परिवर्तनकारी राष्ट्रीय कार्यक्रम बन गई हैं। इसलिए ऐसे उपायों और उनकी वित्तीय व्यवहार्यता का सामान्यीकरण करना उचित नहीं है। यह भी ध्यान रखना जरुरी है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही बजट के माध्यम से और बैंकों सहित सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के माध्यम से मुफ्त वितरण और सब्सिडी को बढ़ा रहे हैं। इसलिए बढ़ती वित्तीय सक्रियता और घाटे, ऋण और राजकोषीय स्थिरता पर इसके प्रभाव पर एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है।

ऑफ-मार्केट उधारी 

ऑफ-मार्केट उधारियाँ वास्तव में बजट की सत्यनिष्ठा को कमजोर करती है। केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारें, इसके लिए बार-बार दोषी हैं। केंद्र सरकार को आगे का रास्ता दिखाना होगा। संक्षेप में, राज्यों की वित्तीय फिजूलखर्ची एक गंभीर राष्ट्रीय चिंता है। हालाँकि, इस कारण पर विशेष ध्यान देना, राज्य सरकारों, केंद्र सरकार और वित्तीय क्षेत्र के बीच लगातार मिलीभगत की कहीं अधिक जटिल और भयानक संभावना से ध्यान भटकाने वाली रणनीति बन सकती है।

जहां तक संस्थागत तंत्रों का संबंध है, कानूनी ढांचा राज्य सरकारों की तुलना में केंद्र सरकार को अधिक गतिशीलता प्रदान करता है। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों में गैर-पारदर्शी वित्तीय व्यवहार का समय पर प्रकटीकरण का संस्थागत तंत्र अनुपस्थित है। संस्थागत ढांचे में सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं क्योंकि राज्य स्तर पर वित्तीय फिजूलखर्ची की लागत बहुत अधिक हो सकती है। वास्तव में, केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय फिजूलखर्ची की कीमत कहीं अधिक हो सकती है।

यह अकल्पनीय है कि भारत सरकार की स्पष्ट जानकारी या निहित स्वीकृति के बिना राज्य ऑफ-मार्केट उधारी में लिप्त हो सकते हैं। विशेष रूप से, यह दिखाने के लिए काफी सबूत मौजूद हैं कि राज्यों द्वारा लिए गए ऑफ-मार्केट उधार का एक बड़ा हिस्सा भारतीय स्टेट बैंक सहित सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख वित्तीय संस्थानों जैसे पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन और ग्रामीण विद्युतीकरण निगम और नाबार्ड जैसे विकास वित्तीय संस्थानों से लिया गया है। यह भी आश्‍चर्यजनक है कि ये इंटरप्राइजेज, विशेष रूप से बैंक, ऑफ-मार्केट उधारी का समर्थन कर रहे थे। यह भी माना जाता है कि ये वित्तीय उपक्रम अत्यधिक उच्च ब्याज दर वसूल कर मुनाफाखोरी कर रहे हैं।

अब, केंद्र और राज्यों दोनों ने ऑफ-बजट उधारी, वित्तीय उत्तरदायित्व कानून द्वारा उधार लेने की सीमा को कम कर दिया है। इस प्रैक्टिस ने वित्तीय ऑपरेशनों में काफी हद तक गैर-पारदर्शिता की भी शुरुआत की है।  इसने केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, सार्वजनिक बैंकों और वित्तीय संस्थानों को शामिल करते हुए अंतर-सार्वजनिक क्षेत्र के लेन-देन का एक लूप भी बनाया है। जब तक इसे अलग नहीं किया जाता, तब तक वित्तीय सिस्टम में सार्वजनिक क्षेत्र का एक्सपोजर बढ़ता ही रहेगा और यह वित्तीय खतरों को और भी बढ़ा देगा।

वित्तीय समझदारी: एक सममित दृष्टिकोण  

यहाँ पर कोई असहमति नहीं है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता के लिए वित्तीय सावधानी एक आवश्यकता है जिसका महत्व महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध द्वारा हाल के वर्षों में बनाई गई ग्लोबल विपरीत परिस्थितियों के कारण कई गुना बढ़ गया है। भारत में, GDP के साथ संयुक्त ऋण (संघ + राज्य) GDP के 90 प्रतिशत के करीब स्तर पर पहुंच गया है। इस वृद्धि को देखते हुए, व्यापक स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए सामान्य सरकारी ऋण और घाटे को कम करने की आवश्यकता है। ब्याज लागत को कम करने और महत्वपूर्ण वांक्षित खर्च के लिए अधिक जगह बनाने के लिए कर्ज में कमी लाना भी महत्वपूर्ण है। लेकिन विवरण महत्वपूर्ण हैं।  यदि हम महामारी के पहले और बाद के घाटे के स्तर की तुलना करें, तो वर्ष 2019-20 के लिए GDP से संयुक्त घाटे का अनुपात 8.3 प्रतिशत था, और राज्यों के लिए यह अनुपात 3.6 प्रतिशत था। वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार का GDP से घाटे का अनुपात बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया। उसी वर्ष राज्यों का घाटा GDP का 4.1 प्रतिशत था। वर्ष 2020-21 में, केंद्र सरकार का राजस्व घाटा GDP के 7.3 प्रतिशत तक अधिक था। केंद्र सरकार का राजस्व घाटा 1979-80 में शुरू हुआ था और तब से इसकी मात्रा में वृद्धि होती जा रही है। वर्ष 1979-80 में राजस्व घाटे की मात्रा 694 करोड़ रुपए थी। वर्ष 2022-23 (BE) के अनुसार, केंद्र सरकार का राजस्व घाटा अनुमान 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक है जो GDP का 3.8 प्रतिशत है।

वर्ष 2020-21 में राज्यों का राजस्व घाटा GDP का 1.9 प्रतिशत होना था।  यह ध्यान रखना जरुरी है कि राज्य सामान्य सरकारी पूंजीगत खर्च के प्रमुख चालक भी हैं। महामारी के चरम के दौरान भी, संयुक्त पूंजीगत खर्च में राज्यों के पूंजीगत खर्च का हिस्सा लगभग 56 प्रतिशत और GDP का लगभग 2 प्रतिशत रहा है। वित्तीय प्रबंधन पर, वर्ष 2005 में वित्तीय उत्तरदायित्व कानून (FRL) के बाद, कुल राज्य-स्तरीय घाटा अधिकांश वर्षों में FRL द्वारा निर्धारित लक्ष्यों के भीतर ही बना रहा। राज्यों के संयुक्त राजस्व खाते में भी कुछ सरप्लस दिखाई दिए जिससे इस अवधि के दौरान उच्च पूंजीगत खर्च के लिए राजकोषीय गुंजाइश में सुधार करने में मदद मिली। जबकि, व्यापक आर्थिक मंदी और महामारी के कारण, कई राज्य राजस्व घाटे में चले गए हैं। वर्ष 2017-18 में, राज्यों का राजस्व घाटा GDP का 0.2 प्रतिशत था, जो महामारी के कारण वर्ष 2020-21 में बढ़कर GDP का 1.9 प्रतिशत हो गया और जिसके वर्ष 2022-23 (BE) में GDP का 0.3 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। इस प्रवृत्ति का शीघ्र बदलाव महत्वपूर्ण है।

निष्कर्ष के लिए, वित्तीय असंतुलन असममित है और यह केंद्र सरकार के लिए अधिक है। इस प्रकार, समेकन तभी हासिल हो सकता है जब वित्तीय चुनौतियों को संघ और राज्यों दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी की तरह देखा जाए। वर्ष 2020-21 के बाद, केन्द्र सरकार के स्तर पर महत्वपूर्ण वित्तीय सुधार हुए हैं जिसे वर्ष 2023-24 के नवीनतम केंद्रीय बजट में प्रदान किए गए वित्तीय घाटे की संख्याओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। केंद्र सरकार का घाटा वर्ष 2021-22 में तेजी से कम हुआ और यह वर्ष 2022-23 (RE) में GDP का 6.4 प्रतिशत है और वर्ष 2023-24 के बजट अनुमान में इसके 5.9 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। 

हालांकि, दृष्टिकोण और विभेदित वित्तीय सुधार पथ के सन्दर्भ में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में केवल एक सममित दृष्टिकोण ही सामान्य सरकारी घाटे को एक स्थायी स्तर तक कम कर सकता है।